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जीवन एक संघर्ष, जीवन के रंग, कविता, देविंदर चोकन

देविंदेर २००५

जीवन के रंग


बहूत जल्दी,बदली हो जाते, जीवन के रंग है

बहूत जल्दी, समझ नहीं आते,जीवन के ढंग है


बचपन के रंग----

चाहे -किसी से ही पूछ लेना,

अमीर हो या गरीब,

सब ,अपने बचपन को ही, सवर्ग बताते है


सब अपने बचपन को- बड़े प्यार से

दुसरो को जता जाते है

लेकिन

 जवानी आते आते- सब एक दम बदली हो जाते है


जवानी के रंग---


जों बचपन मे, पापा- मम्मी के प्यारे होते है

वो जवानी कि दहलीज पर जाकर-

 धर्म पत्नी के प्यारे हो जाते है


जों भाई,  बचपन मे हर पल साया बने रहतें थे

वो भी पूरी तरह -नजरें बदल जाते है


दोस्ती के रंग ---

बचपन के दोस्त सायद ही, जवानी मे साथ चल पाते है

किसी ना किसी मोड़ पर, वो पीछे रहतें चले जाते है

और जवानी आते आते,

एक जैसे गमो के मारे ही साथ रह जाते है


जवानी आने पर,

बचपन वाले यार ही याद आए जाते है

क्योंकि जवानी मे तो यारी, मतलब तक रह जाती है


बुढ़ापा के रंग -=-=---

जब तक उम्र ढाल जाती है 

शरीर मे भी जान, नाम कि रह जाती है

घर वालो को भी, बाते बकवास लगने लग जाती है


चारो और से आस मिट जाती है

और फिर नजर प्रभु गुण गान कि तरफ जाती है

और फिर एक दिन दुनिया को अलविदा कहने कि बारी आती है


आखरी पल पर भी ये दुनिया अनेक रंग दिखाती है

किसी को तो पूरी उम्र होने पर भी अच्छे से मौत मिल जाती है

किसी को मौत बड़ी ही रुलाती है

फिर पीछे से जों घर वालो का रंग नजर आता है

वो भी मतलबी दिखाई देता जाता है


कैसे -=-

यदि जाने वाला जवान है तो उसकी उम्र

और बच्चों का रोना रोया जाता है

और यदि मरने वाला पूरी उम्र पर जाता है

तो वो क्या करता था उस नजर से याद किया जाता है


अंत मे सब यही रह जाता है कुछ नहीं साथ जाता है

फिर भी इंसान मोहमाया मे खोया रह जाता है

मरने पर ना जाने कौन आए

यदि मन मे कसके हो तो -


बेटा भी माँ बापू को भूल जाता है

वो उनके मरने पे भी नहीं आता है

जों माँ बापू का हिस्सा वो लें एक और बैठ जाता है

जानते हुए भी वो आखिरी समय मे उन्हें मिलने नहीं आता है

जिसके लिए पिताजी पूरी उम्र मारा -2 फिरा 


फिर क्या उसका दुनिया मे रह जाता है